Thursday, July 23, 2009

मुंह की बात सुने हर कोई....

दिल के दर्द को जाने कौन ...
आवाजों के बाजारों में ...
खामोशी पहचाने कौन ...
दक्षिण बस्तर के सकुमा से कोंटा जाते समय बस में चल रहे इस गजल को सुनते हुए मैं खिडकी से लोगों को पीछे छूटते देख रहा हूं, ये एर्राबोर की सड़क पर लगे राहत शिविर में रहने वाले लोग हैं... जोकि दो-चार के टोली में खड़े- खड़े बस को जाते देख रहे हैं .. बस्तर से बाहर रह रहे मेरे मित्रों की अब ये शिकायत मुझे गाहे-बगाहे सुनने मिल जाती है कि अब मैं उन्हें पहले की तरह बस्तर क्यों नहीं बुलाता ....
तभी अचानक बस रुक जाती है ... कुछ बच्चे छोटी वाली बंदूक लेकर बस में चढ़ जाते हैं ... बस में कोई कहता है कि ये जूडूम वाले हैं ....सबकी तलाशी लेंगे । बस में चढ़े ये बच्चे बड़े ही उज्जड़ तरीके से व्यवहार करते हैं ...ये बच्चे सभी लोगों से एक ही प्रश्न करते हैं ... तू कहां से आ रहा है ... कहां को जाएगा ... .। उनके इस प्रश्न पर आपको चिढ़ तो नहीं होगी मगर उनकी बाल सुलभ दादागीरी जरुर दिखाई देगी ...
सलवा जूडूम को मैंने पहले दिन से ही देखा है ...भैरमगढ़ के पास करकेली गांव की एक बैठक में हुए एक कंफ्यूजन से इतना बवाल मचेगा इसका अहसास उस समय किसी को नहीं था ... 8 जून 2005 को जब पता चला कि आदिवासियों की एक बैठक में दादा लोगों ने गोली चला दी है तो सहसा किसी को यकीन ही नहीं हुआ, मगर सत्यता यही थी ... बस्तर में उस समय ईटीवी के संभाग रिपोर्टर के बतौर मेरे लिए ये खबर एक नए स्कूप की तरह थी ...तो बस्तर में समाचारों की एकरुपता से उबिया गए मेरे जैसे मीडियाकर्मियों के लिए खबर स्फूर्ति देने वाली भी .. सो मैंने बैठक में घायल लोगों सहित प्रशासन की दिक्कतों पर खबर बनाया, जिसे पांच दिन तक समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। खबरों के बाद अचानक प्रशासन तब जागा, जब लोगों की भीड़ बीजापुर पहुंच गई ... बस्तर में मीडियाकर्मियों के लिए स्व. प्रमोद महाजन की तरह साख रखने वाले महेन्द्र कर्मा से जब बाइट लेने पहुंचे तो लगा उन्हें इसी तरह की बात का अंदाजा था। श्री कर्मा पहले भी जनजागरण जैसा काम कर चुके थे ... देश और राजधानी स्तर पर सलवा जूडूम को लेकर कर्मा की भूमिका पर भले ही कुछ भी बात की जाए मगर आज की स्थिति को देख सबको पीड़ा होती है .. इस बार भी मैं अनमने मन से हैदराबाद जाने को निकला हूं । आजकल मुझसे बस्तर के झरने, चित्रकोट और रीति-रिवाज को छोड़ जब लोग नक्सलवाद और सलवा जूडूम के बारे जाने चाहते हैं तो बड़ी घबराहट होती है ... मुझे लगता है कि बस्तर को बदनाम करने की कवायद हो रही है .. बस्तर के वे लोग जो अपनी जिंदगी कभी पगडंडियों पर ... तालाब में मछली पकडते या फिर एक गिलहरी और चुहिया के पीछे हांफते हुए पूरा दिन काट देते थे वो अब राहत शिविरों में खड़े होकर लोगों को आते-जाते देखते रहते हैं ... मोडियम एक्का को इस बता का मलाल है कि उसका सल्फी उसी साल रस देने वाला था... तो उसके बेटे को लगता है कि वह अब पहले तरह अपने बाप के लिए चाखना नहीं ला पा रहा है। राहत शिविर में इन लोगों के लिए आप कितना भी कुछ कर दें, वो खुशी इन्हें नहीं दे सकते ... डॉ साहब (डॉ रमन) आप सब ला दोगे .. मगर सल्फी का पेड़ कहां से लाओगे ... देश और राजधानी में बैठकर सलवा जूडूम पर गोष्ठी करने वालों ये क्यों दिखाई नहीं देती ... इनकी खुशी राहत शिविरों में नहीं बल्कि उसी गांव में है जहां इनके पुरखे दम तोड़ दिए हैं .. सड़कों पर अपने गांव दूर रहने आए लोगों की पीड़ा यकीन मानिए अब असहनीय होती जा रही ..है ... आपको याद होगा कि जिन्हें देखने बस्तर में लोग दूर-दूर से आते थे अब उनकी जगह बस्तर में ही नागा.. मिजो.. बीएसएफ.. सीआरपीएफ की बटालियन ने ले ली है ... चिडि़यों की चहचहाट की जगह बंदूक गोली तो झरने की कल-कल की जगह आसमान में मड़राते हेलीकॉफ्टर की आवाज सुनाई देती है... बस्तर में नक्सलियों की संख्या कितनी होगी ... समस्या का समाधान इसी प्रश्न में है... मगर फुर्सत किसे है .. राजनीतिक दल और प्रबुद्ध लोगों ने इस समस्या के समाधान के इतने सुझाव दिए हैं कि उनका पालन अभी तक नहीं हो पाया है। ऐसे में मैं कोई नई सलाह देना नहीं चाहता ... राहत शिविर में रह रहे लोगों की बेचैनी अब देखी नहीं जाती हैं .. इनकी हालत ठीक बारात में आए बाराती की तरह है.... कोई ये काहे नहीं समझता कि बारात मेहमान नवाजी से नहीं, बल्कि अपनी अच्छी विदाई चाहती है .. शिविर के लोग अपने घर-गांव लौटना चाहते हैं मगर नक्सलियों का भय उन्हें लौटने नहीं देता ...तो गांव याद उन्हें जीने नहीं देती ।
भद्रजन ...आप कुछ ऐसा क्यों नहीं करते कि मोडियम एक्का मुझे फिर से अपने गांव में सल्फी पीने का आफर दे.. और उसका बेटा अपने बाप के लिए चाखना लाने के दाय़ित्व का पालन करता दिखाई पड़े ... कोशिश तो ये होनी चाहिए .. कि बस्तर फिर से अखबार के प्रथम पेज से हट कर फीचर पेज में आ जाए और मैं अपने हित-मित्रों को गोली-बारुद और सैन्य जवानों को दिखाने के बजाय पहाड़ी मैंना की बोली .. कड़कनाथ मुर्गे का स्वाद और सल्फी जैसे बीयर पीकर मस्ती करने का बहाना बना कर अपने बस्तर बुला सकूं ...
मेरे लिए तो सलवा जूडूम का अर्थ है सब एक बार फिर से मिल जाएं ...
लगता है बच्चे बस से उतर गए गए हैं और बस चल पड़ी है। बस ने गेयर तो गजल ने फिर अपनी रंगत पकड़ ली है....
वो मेरा आइना है और....
मैं उसकी परछाई हूं ...
.....मेरे ही घर-आंगन में ...
.....झांक रहा हैं जाने कौन ...
बस की गति के साथ-साथ न चाहते हुए भी एर्राबोर राहत शिविर के लोग हवाओं के साथ मुझसे दूर होते जा रहे हैं ...
... मुंह की बात सुने हर कोई .... दिल के दर्द को जाने कौन ....
---- संजीव शुक्ल, रायपुर (छत्तीसगढ़)

8 comments:

  1. सर जितने लोगों को अभी तक मैं जानता हूं उतने लोगों में से आप ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो बस्तर के विषय में समृद्ध हैं...

    साथ ही बस्तर की ख़ूबसूरती बयां करने का तरीका भी आपका बेहद निराला है...

    आपके हर लेख में या आपकी हर बात में छत्तीसगढ़ी सुगंध महसूस की जा सकती है...

    बहुत ज़बरदस्त...

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  2. Bahut hi pyaraa likhaa hai sir. keep it up!

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  3. छा गए सर... जिस बस्तर से हम अंजान थे... आपके इस लेख से उससे रूबरू होने का मौका मिला... बहुत बेहतरीन...

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  4. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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  5. बहुत अच्छा सर-एसे हि लिखते रहे हम रोज आपसे एक लेख चाहते हैं............आपका प्रशंसक.
    शंकर

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